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धरती आबा भगवान बिरसा मुंडा : जंगल का सिंह और भारत की आत्मा – योगेश साहू (सामाजिक कार्यकर्ता)

  रायपुर:जंगल में दो ही राजा होते हैं – एक टाइगर, दूसरा ट्राइबल।बाकी सब मेहमान। ये बात कोई किताबी विद्वान नहीं, खुद जंगल बोलता है। और जब जंग...

 


रायपुर:जंगल में दो ही राजा होते हैं – एक टाइगर, दूसरा ट्राइबल।बाकी सब मेहमान। ये बात कोई किताबी विद्वान नहीं, खुद जंगल बोलता है। और जब जंगल बोलता है तो उसकी आवाज में बिरसा की गूंज सुनाई देती है, धरती आबा भगवान बिरसा मुंडा की। इस वर्ष राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अपना शताब्दी वर्ष मना रहा है, तब पूरा जनजातीय समाज एक स्वर से कह रहा है –बिरसा हमारा भी है। समाज ने कभी उन्हें अपना-अजनबी नहीं माना। उल्टे, संघ के स्वयंसेवकों ने बिरसा की जयंती को जनजातीय गौरव दिवस के रूप में स्थापित करने में सबसे बड़ा योगदान दिया। यह कोई राजनीतिक दिखावा नहीं, यह आत्मा का संवाद है। क्योंकि संघ और समाज भी तो उसी धरती से निकला है, जिस धरती ने बिरसा को जन्म दिया।बिरसा मुंडा कोई सिर्फ क्रांतिकारी नहीं थे,वे एक संपूर्ण दर्शन थे। वे उस सनातन चेतना के जीवंत रूप थे जो कहती है –धरती माँ है, जंगल भगवान का घर है, और उसकी रक्षा के लिए प्राण भी दे दिए जाते हैं। जब अंग्रेज और उनके दलाल जमींदार मुंडाओं की जमीन छीन रहे थे,चर्च उनके धर्म को मिटा रहे थे,तब एक 25 साल का नौजवान खड़ा हुआ और बोला –

“अबुआ दिशुम, अबुआ राज”

(हमारा देश, हमारा राज)।

उसकी आवाज में वज्र था, उसकी आँखों में जंगल की आग।उलगुलान नहीं, वो तो पूरा महाउलगुलान था।



 1899-1900 का वो विद्रोह आज भी कांपता है अंग्रेजों की रीढ़ में – क्योंकि उसमें कोई हथियारबंद सेना नहीं थी,सिर्फ बांस के भाले और तीर-कमान थे,पर था एक अटूट विश्वास यह धरती हमारी माँ है,इसे कोई नहीं छीन सकता।और सचमुच,बिरसा को कोई हरा नहीं सका।जेल में जहर देकर मार दिया गया,पर उनकी चेतना को मारना असंभव था।

आज भी छोटानागपुर के जंगलों में जब हवा चलती है, तो सरना के पवित्र साल वृक्ष हिलते हैं, और बिरसा की आवाज गूंजती है।जनजातीय समाज आज भी वही जी रहा है, जो बिरसा ने सिखाया था।वे जंगल के साथ जीते हैं,जंगल के लिए जीते हैं।उनका जीवन कोई रोमांटिक कविता नहीं, एक कठोर सत्य है।


वे जानते हैं कि जंगल खत्म हुआ तो हम खत्म हो जाएंगे,इसलिए वे टाइगर के साथ रहते हैं –बराबरी से।

टाइगर उनका छोटा भाई है, वे टाइगर के बड़े भाई।

दोनों जंगल के रखवाले।दोनों निडर। दोनों राजसी। 


आज जब दुनिया “सस्टेनेबल डेवलपमेंट” की बात करती है, तब हमारे जनजातीय भाई-बहन सदियों से उसे जी रहे हैं।वे पेड़ नहीं काटते, वे पेड़ से बात करते हैं।वे नदी को दूषित नहीं करते, वे नदी से आशीर्वाद लेते हैं।उनका हर त्योहार प्रकृति का उत्सव है।सोहराय, करम, सरहुल – ये सिर्फ नाच-गाना नहीं, धरती के प्रति कृतज्ञता है।संघ का शताब्दी वर्ष इसलिए भी खास है क्योंकि इस वर्ष हम बिरसा को सिर्फ याद नहीं कर रहे, हम उन्हें जी रहे हैं।

वनवासी कल्याण आश्रम के लाखों कार्यकर्ता आज भी उन गाँवों में काम कर रहे हैं जहाँ बिरसा ने अपने प्राण त्यागे थे।वे स्कूल चला रहे हैं, अस्पताल चला रहे हैं, पर सबसे बड़ी बात – वे जनजातीय समाज की अस्मिता को मजबूत कर रहे हैं।वे कह रहे हैं – तुम्हारी संस्कृति ही तुम्हारी ताकत है, उसे छोड़ना मत। बिरसा मुंडा आज होते तो सबसे पहले यही कहते –“अपनी भाषा मत छोड़ो, अपना परिधान मत छोड़ो, अपना सरना मत छोड़ो।शिक्षा लो, लेकिन अपनी जड़ों से कटकर नहीं।" विकास चाहिए, लेकिन जंगल काटकर नहीं।अस्मिता चाहिए, लेकिन हीन भावना से नहीं।


15 नवंबर को पूरा विश्व जनजातीय गौरव दिवस मना रहा है,और कई कार्यक्रम अभी भी कर रहा है,यह बिरसा की जीत है।यह उस नौजवान की जीत है जिसने 25 साल की उम्र में अंग्रेजी साम्राज्य को चुनौती दी थी।धरती आबा भगवान बिरसा मुंडा को कोटि-कोटि प्रणाम।

तुम अमर हो।तुम्हारे जैसे योद्धा बार-बार नहीं जन्म लेते।

पर तुम्हारी चेतना हर उस आदिवासी बच्चे में जीवित है, जो आज भी जंगल के साथ साँस लेता है।

जय बिरसा!

जय जनजातीय भारत!

जय हिंद!

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